अजय शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
कोरोना को लेकर मौत के आंकड़ें बढ़ रहे हैं। कोराना संक्रमितों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। शमसानों घाटों पर अंतिम संस्कार को लेकर लाइनें लग रही हैं। समूचा विश्व कोरोना के आतंक से त्रस्त है। वैज्ञानिक और डाक्टर निरन्तर शोध कर रहे हैं और हर दिन एक नयी संभावना जाग्रत होती है कि वैक्सीन शीघ्र ही उपलब्ध होगी। कोरोना की जांच के लिए नित नई विधियां प्रकाश में आ रही हैं। सफलता की ओर बढ़ता हर एक कदम नई आशा की किरण लिये है। अनेक मानदंड स्थापित होते जा रहे हैं। जहां कुछ समय पहले सीटी वैल्यू के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं हो पाता था अब डाक्टरों का कहना है कि सीटी वैल्यू ‘24‘ होना सुरक्षित है। इससे कम या ज्यादा के अलग अर्थ हैं।
लेकिन इस सब के बीच किसान आंदोलन ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है। किसान आंदोलन की तसवीरें देख कर मन में एक प्रश्न उठा की हजारों की संख्या में किसान भाई कन्धा से कन्धा मिलाकर प्रदर्शन करते हुए दिल्ली में प्रवेश करने के लिए संधर्ष कर रहे हैं। तो क्या कोरोना वायरस से संक्रिमत होने का उन्हें कोई डर नहीं । उनमें से तो कई काफी बुजर्ग भी हैं। हमने उनकी पुलिस के साथ संधर्षपूर्ण भिडंत भी देखी। जिसमें वाॅटर केनन से लेकर लाठी चार्ज तक शामिल है। इनमंे अधिकाँश लोगों ने तब न मास्क पहना था और न ही कोई सोशल डिस्टन्सिंग का पालन कर रहे थे । हाँ पुलिस कर्मियों ने मास्क जरूर पहने हुए थे पर किसानांे से तकरार में उनके भी मास्क उतर गए।
दोस्तों शादियों का मौसम है। लोग शादियों में अपनी सामाजिक सहभागिता की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा कर रहे हैं। वहां पर कहीं भी सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क दिखाई नहीं दे रहे हैं। तो क्या इनको भी कोरोना का डर नहीं है ?
इस विषय पर मैने जब अपने एक परिचित से पूछा तो उसने बताया कि भाईसाहब कैसा कोरोना, कौन कोरोना। यह तो सिर्फ टीवी चैनल पर दिखाई दे रहा है। बाहर कहीं भी नहीं हैं। हमने तो खूब एंजाव्य किया। उसने बताया कि प्रशासन की तरफ से निर्धारित मेहमान दोनों तरफ से कम थे। जब खाना पीना चरम सीमा पर था तो मेहमान सब नियम भूल गए।
यही हाल दिल्ली एनसीआर में लगने वाले साप्ताहिक बाजार या फिर फुटपाथ बाजार का है। लोगों के जेहन में कोरोना का डर तो रहता है लेकिन भीड़ में थोड़ी देर बाद सब नियम भूल जाता है।
जबकि स्वास्थ्य विभाग और अमिताभ बच्चन कहते हैं कि दो गज दूरी है जरूरी। मास्क पहनने और सोशल डिस्टन्सिंग के इलावा हमे भीड़ भाड़ वाली जगह में जाने से बचना चाहिए, विशेषकर वो जिनकी उम्र ६० वर्ष के उपर हैं और जिन्हे कोई बीमारी हो और हाई रिस्क श्रेणी में आते हैं।
हो सकता हैं मैं बेवजह घबरा रहा हूँ । पर मैं कोई भी रिस्क नहीं लेना उचित नहीं समझता। क्यों की बचाव ही अकेला इलाज हैं ।
क्या आप भूल सकते हैं कि कोरोना काल में इस महामारी से बचने के लिए लोगों ने क्या नहीं किया। किसी ने घर में मंदिर बनाकर कोरोना देवी की पूजा की तो किसी ने कोरोना बाबा को मनाने का हर प्रयास कर डाला।
कोविड-19 का प्रकोप अगर और लम्बा खिंचा तो भय, भूख और गरीबी किस्म-किस्म की अराजकता को जन्म दे सकती है। आपने कुछ दिनों पहले लाखों लोगों को महानगरों से पैदल अपने गांव जाते हुए देखा था। गांवों में अगर उन्हें पालने-पोसने का माद्दा होता, तो वे शहरों की ओर भागते क्यों? हम एक असंतुलित दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं और ऐसे में सरकारों को जल्द से जल्द समाज की तली पर बैठे लोगों की सुधि लेनी पड़ेगी। हमारे देश में उसके लिए कुछ कोशिशें हुई हैं पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
कोरोना को लेकर लोगों का जो व्यवहार देखने के लिए मिल रहा है वो यह समझाने के लिए काफी है। महामारी ने लोगों की मति मारनी शुरू कर दी है। सामाजिक रिश्ते तो अपनी जगह हैं, तमाम जगहों पर पारिवारिक और मानवीय संबंध भी उथले साबित हो रहे हैं। यह दौर अगर लंबा खिंचा, तो यथार्थ की कटु कालिख तमाम उजले रिश्तों के चेहरे मलिन कर देगी।
ये सवाल अपनी जगह हैं पर एक बात तय है कि महामारी अभी अपना क्रूर पंजा कसती जा रही है। नये हॉट-स्पॉट बढ़ रहे हैं, बीमारों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में सावधानी जारी रखने से परहेज कैसा?
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