भादर गर्मी में शरीर और मुंह को पूरी तरह काले वस्त्रों से ढक कर घूमना, इन मुस्लिम महिलाओं को देख रूढ़िवादी संस्कृति और मज़हबी मान्यताओं को थोपना साफ दिखता है, जहां खुले लिबास में भी अन्य महिलाएं असहजता और गर्मी को अनुभव करती हैं वहीं बुर्के में कैद इन महिलाओं की मनोस्थिति आप समझ ही सकते होंगे। डॉ. भीम राव अम्बेडकर की एक किताब ‘ पाकिस्तान और पार्टीशन ऑफ इंडिया ’ में कहा है की ‘ एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा, ताऊ और शौहर को देख सकती है या फिर अपने वैसे रिश्तेदारों को जिनपर विश्वास किया जा सके, वो मस्जिद में नमाज़ अदा करने भी नहीं जा सकती, बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती, तभी तो भारत के गली, कूचों सड़को पर आती जाती बुर्का नाशी मुस्लिम महिलाओं का दिखना आम बात है। मुस्लिमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उससे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से एक है उनका मानना है की इससे उनका शरीर पूरी तरह ढाका होता है लिहाज़ा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाए वो परिवारिक झंझटों और रिश्तों की उलझने सुलझाने में व्यस्थ रहती हैं क्योंकि उनका बाहरी दुनियां दुनियां से संपर्क कटा रहता है वह बाहरी, सामाजिक क्रियाकलापों में हिस्सा नहीं लेती लिहाज़ा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है वह हीन भावना से ग्रस्त , कुंठित और लाचल किस्म की हो जाती हैं मुस्लिम महिलाओं की दशा के बारे में आप कहीं भी आसानी से पढ़ सकते हैं। ’
बी. आर. अम्बेडकर की इस किताब का तर्क देते हुआ कर्नाटक हाई कोर्ट ने हिजाब के ऊपर फैसला सुनाते हुए ये भी कहा की अम्बेडकर ने पर्दा प्रथा के इन अवगुड़ो को 50 वर्ष पूर्व ही समझ लिया था अब आप ही बताइए की पर्दा प्रथा, हिजाब या नकाब महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा कैसे दे सकता है साथ ही कोर्ट में हिजाब पर पीठ ने ये भी कहा की मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है कुरान में ये सिर्फ एक सिफारिश है न की अनिवार्यता ये सिर्फ एक निर्देश है जिसे मानना न मानना आपके ऊपर निर्भर करता है 128 पनों के इस प्रलय में पीठ ने शिक्षा स्थलों में हिजाब को अनुमति न देते हुए कई तर्क सामने रखे।
हिजाब को संस्कृति और परंपरा से जरूर जोड़ा जा सकता है लेकिन उसे धर्म का नाम नहीं दिया जा सकता जिस तरह कुरान में कलमा, नमाज़, रोज़ा, जकात और हज अनिवार्य होने का ज़िक्र है जिसपे हानि पहुंचने पर संविधान भी उसे संरक्षण देता है लेकिन हिजाब के अनिवार्य होने का कोई भी प्रमथ कुरान में मौजूद नहीं दिखता। ये बेहद संवेदनशील विषय है, सोचने वाली बात है की एक 6 साल की बची हिजाब या नकाब में सहज कैसे महसूस कर सकती है ऐसे कई सारे उदाहरण हमे रोज़ देखने और पढ़ने को मिलते हैं। हिंदुओं में भी सदियों से घूंघट प्रथा रही है, वैवाहिक औरतों को सिंदूर लगाना अनिवार्य है लेकिन 21 वीं सदी में महिलाओं ने इन मान्यताओं और प्रथाओं को खंडित कर आगे बढ़ने का फैसला किया है लेकिन आज विवाद सिक्षा शैली पर नहीं, आज विवाद महिलाओं के आगे बड़ने पर नहीं बल्कि बुर्के को अपनाने पर हो रहा है जबकि ये बात स्पष्ट है की बुर्का हटाने से न तो कुरान की आवेलना होती है और न ही कोई धार्मिक क्षति पहुंचती है। एक औरत के रूप में मेरी समझ से उसके बालों की खूबसूरती, उसके नैन नक्श, सजने धजने का शौख और हमेशा आकर्षक दिखने की प्ररणाली सभी औरतों में होती है जिसे हमेशा नकाब तले ढकना स्वाभाविक नहीं है
स्कूल हो या कॉलेज हमें हमेशा उसके नियमों और कानूनों के हिसाब से चलना पड़ता है ऐसा न करने पर हमपर सक्त एक्शन लिया जाता है। स्कूल या कॉलेज की एक यूनिफॉर्म का मकसद किसी के प्रति भेद भाव की भावना न रखना है और सभी को एक नज़र से देखना है। अगर हिजाब को मंजूरी देदी तो सभी धर्म के लोग अपने धार्मिक वस्त्र को पहनने की मांग करेंगे अभी हिजाब और भगवा पहनने की मांग की है कल स्कूल और कॉलेज में नमाज़ पढ़ने की मांग करेंगे मंदिर बनाने की मांग करेंगे और इस तरह स्कूल शिक्षा का नहीं बल्कि धर्म निर्वाह का स्थल बन कर रह जायेगा।
यहां बात लड़कियों के कपड़े पहनने न पहनने पर आपत्ति जताने की नहीं है। न ही कोई हिजाब के खिलाफ़ है ये आपकी धार्मिक वस्त्र है और ये भी आपकी मर्जी है आप उसे पहनना चाहते हैं या नहीं लेकिन स्कूल और कॉलेज आपके धार्मिक वस्त्र पहन कर आने की जगह नहीं है अगर आपके ज़ेहन में अपने धर्म को निभाने की इतनी इच्छा है तो आप मदरसों में जाके अपनी तालीम ले सकते हैं जहां हिजाब पर कोई मनाही नहीं है। स्कूल और कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने का स्थान है जहां अनुशासन सबसे पहले है । सवाल यहां कई हैं और जवाब ढूंढने निकलेंगे तो शायद आप भी सही और गलत के बीच उलझ कर रह जाए।