जाह्नवी श्रीवास्तव
महिलाओं के हक के लिए लड़ने वाली मलाला यूसुफजई अपनी किताब ‘ आई एम मलाला ’ के नौवे अध्याय ‘ रेडियो मुल्लाह ’ में लिखती हैं की एक दिन सूफी मोहम्मद कहते हैं की महिलाओं को महिला मदरसों में भी कोई तालीम या शिक्षा नहीं मिलनी चाहिए, वे उन लड़कियों का नाम लेकर उन्हें प्रोत्साहित करते हैं जिन्होंने (तालिबानियों के खौफ से) स्कूल छोड़ने का फैसला लिया है या स्कूल छोड़ चुकी हैं। सूफी मोहम्मद मलाला और बाकी महिलाएं जो स्कूल जाती हैं उन्हें भैंस और भेड़ कहकर बुलाते हैं। 2013 में प्रकाशित मलाला की ये किताब 21वीं सदी में भी महिलाओं पर अत्याचार की दास्तां बखूबी बताती है। मिशेल ओबामा अपनी किताब ‘ बिकमिंग मिशेल ओबामा ’ में लिखती हैं की किस तरह लोग उन्हें गुसैल काली औरत कहकर उनका उपहास उड़ाते थे। ये किताबें दर्शाती हैं की नारीवाद की लड़ाई भारत में ही नहीं पूरे विश्व में छिड़ी हुई थी। भारत के पितृसत्तात्मक समाज के भीतर संस्कृति-विशिष्ट मुद्दों जैसे कि वंशानुगत कानून और सती जैसी प्रथा के खिलाफ भी लड़ाईयाँ लड़ी गई सावित्रीबाई फुल्ले ने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्री अधिकारों एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए l ताराबाई शिंदे, जिनका लिखा “पुरुष-स्त्री तुलना” आधुनिक भारत में नारीवादी का पहला लेख माना जाता है। पंडिता रमाबाई, समाज सुधारक, ब्रिटिश भारत में महिलाओं की मुक्ति के लिए अग्रणी बनीं। कामिनी रॉय, कवि, नारी-मतार्थिनी, और भारत में स्नातक से सम्मानित प्रथम महिला।
भारत में सिर्फ महिलाओं ने ही नही बल्कि राजा राम मोहन रॉय, जोतीराव फुल्लेे, अरुणाचलम मुरुगनाथम जिन्होंने पीरियड से जुड़ी समस्याओं पर काम किया जिन्हे पैडमैन के नाम से भी जाना जाता है, डॉ. सुभाष चंद्र बोस अपनी किताब में हिंदू और मुस्लिम महिलाओं की अनिवार्य पर्दा प्रथा के बारे में भी लिखते हैं, इन सभी पुरुषों ने भी नारीवाद को दृढ़ता से आगे बढ़ाने के साथ पितृसत्तात्मक समाज को भी आइना दिखाया, नारीवाद की आवाज़ उस वक्त अगर पुरुषों ने ना उठाई होती तो इसकी गूंज आज देश के कोने कोने में न सुनाई पड़ती शायद आज आप और मुझ जैसी महिलाएं इस आज़ादी की साक्षी न होती।
लेकिन आज हमारे देश के कुछ वर्गों ने नारीवाद की परिभाषा को अपने सहूलियत अनुसार तोल मोल लिया है जिसमें राजनेताओं, फिल्म निर्माताओं, गायकों के साथ साथ एक वर्ग महिलाओं का भी है जिनकी परिभाषा और परिकल्पना नारीवाद की वास्तविकता से बिलकुल अलग है हम इसे छद्म-नारीवाद कह सकते हैं जो बताता है कि महिलाएं अधिक सम्मान की पात्र हैं, या अन्य लिंगों के लोग सम्मान के पात्र नहीं हैं। 2018 में आई फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’, 2019–20 में आई वेब सिरीज़ ‘ फोर मोर सोर्ट्स प्लीज’ के कई दृश्यों में महिलाओं को धूम्रपान करते और शराब का सेवन कर दिखाते हुए उसे सशक्तिकरण से जोड़ा गया है, कहने को तो ये फिल्म बोल्ड और आधुनिक महिलाओं पर निर्मित है जो सशक्त हैं और रूढ़िवादी सामाजिक और घरेलू समस्याओं से लड़ती हैं लेकिन आधुनिकता का समर्थन करती ये महिलाएं धूम्रपान और शराब के सेवन को भी आधुनिकता के चोले में लपेट रही हैं। आख़िर शराब और सिगरेट का सेवन करने से किस प्रकार एक महिला सशक्त बन सकती है ये दोनों दो अलग अलग बातें हैं और ये उनकी व्यक्तिगत पसंद है जिससे महिला सशक्तिकरण से जोड़ना गलत है। लेकिन आज कल महिलाएं इसे भी नारीवाद और महिला सशक्तिकरण का नाम दे रही हैं। अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का महिलाओं की मर्जी/पसंद को लेकर एक वीडियो सामने आया था जिसमे 99 महिलाएं अपनी पसंद को लेकर स्वतंत्र हैं कहा और बताया गया हम जब इसकी समीक्षा करने बैठे तो वीडियो में कही गई बहुत सी बातें गलत और आपत्तिजनक थीं। एक तरफ महिलाएं ये कहती नज़र आईं की वे कुछ भी करें ये उनकी मर्जी है, ’वे शादी से पहले किसी पुरुष के साथ संबंध बनाएं, शादी के बाद, या शादी के बाहर संबंध बनाएं ये उनकी मर्जी है, वे कुछ पहने या कुछ न पहने ये भी उनकी मर्जी है’, आप स्वयं सोचिए की यही बात किसी पुरुष ने कही या करी होती तो अपने आपको नारीवादी बताने वाली यही महिलाएं शोषण, छल और न जाने कितने आरोप लगातीं। महिला सशक्तिकरण को इस तरह दर्शाने वाले समाज के इस वर्ग को हवा, राजनीतिक पार्टियों और राज नेताओं ने भी कुछ कम नहीं दी है, महिलाओं के लिए फ्री बस यात्रा, सरकारी नौकरियों में 40% आरक्षण, यात्रा करने के टिकट पर 40% आरक्षण जैसे वादे कर महिलाओं का वोट बैंक हासिल करने के साथ ही अपनी राजनीतिक रोटियां भी खूब सेंकी हैं एक तरफ महिलाओं और पुरूषों के बराबरी की बात हो रही है और दूसरी तरफ उन्हें पुरुषों और अन्य जातियों से उच्च/बेहतर बताया जा रहा है ये कह कर की ऐसी योजनाओं से महीला सशक्त बनेंगी। हां ये बात सच है की आज भी महिलाओं को पुरुषों के अपेक्षा हर वर्ग में भागीदारी और हिस्सेदारी दोनों ही कम मिलती हैं 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक श्रम फौज में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 20.3% थी जबकि पुरुषों की भागीदारी 63% थी, रिपोर्ट कहती है को महिलाओं की हिस्सेदारी अगर पुरुषों के जितनी भी बढ़ जाए तो भारत की जीडीपी 770 बिलियन डॉलर हो जायेगी, 2018 की यूनिसेफ की रिपोर्ट कहती है की पुरुषों के काम करने का एक घंटे का वेतन 233 रुपए है जबकि महिलाओं का सिर्फ 169 रुपए है। आईटी विभाग में पुरुषों को 26% वेतन ज्यादा मिलता है जबकि उत्पादन विभाग में 24% प्रतिशत ज्यादा मिलता है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है की हमारी लड़ाई या प्रतिस्पर्धा पुरुषों से है? देश के एक बड़े समाचार पत्र दैनिक भास्कर ने हाल ही में विवाह के लिए छपने वाले विज्ञापनों में महिलाओं के रंग, कद, गोरी, काली, मोटी, पतली जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से मना कर दिया ये एक ऐतिहासिक कदम है जो सराहनीय है लेकिन सिर्फ महिलाओं का ही क्यों?
हमारी लड़ाई हमारे हक के लिए है हम आरक्षण या मुफ्त योजनाओं का लाभ उठाकर सशक्त नहीं बनाना चाहते हम समाज की सोच बदलकर सशक्त बनाना चाहते हैं और ये तभी संभव है जब समाज का हर वर्ग ये बात समझेगा जिसके लिए सरकार को सामाजिक जागरूकता को और बढ़ाना होगा महिलाओं के लिए लाई गई योजनाओं का संशोधन कर उसपर अमल करना होगा।
ऐसा नहीं है की महिलाओं की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है ऐसी कई सामाजिक बुराइयां हैं जिनका अंत हो चुका है और हो रहा है जैसे बाल विवाह, महिलाओं के विवाह की न्यूनतम उम्र को बढ़ाकर 21 कर देना, विधवापन खत्म हो जाना, देश के लड़ाकू विमानों जैसे राफेल में महिलाओं की भर्ती होना और सबसे अहम कन्या भ्रूण हत्या के मामले घट जाना जिससे भारत की महिलाओं की संख्या पुरूषों के मुकाबले ज्यादा हो गई है। एक महिला होने के नाते मैं खुद नारीवाद के विचार से इत्तेफ़ाक रखती हूं लेकिन छद्म नारीवाद/स्यूडो फेमिनिज्म से नही समाज में औरतों को उनके रूप, रंग, कद, सौंदर्य और चरित्र के बलबूते ही नहीं बल्कि समाज में न केवल पुरुष बल्कि हर वर्ग के लोग जितनी ही इज्ज़त, काम और बराबरी मिलनी चाहिए। न किसी से ज्यादा न किसी से कम।