प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यूरोप की यात्र ऐसे समय में संपन्न हुई जब विश्व व्यवस्था का संक्रांति काल है और दुनिया नई चुनौतियों का सामना कर रही है। कोविड-19 महामारी अभी खत्म नहीं हुई है। इसके प्रभाव अभी लंबे समय तक रहने हैं। लिहाजा अभी दुनिया को एकजुट होकर इसकी चुनौतियों को हराते हुए शांति, समृद्धि और सुरक्षा के लिए काम करने की आवश्यकता थी, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने इसे नेपथ्य की ओर धकेलकर नई तरह की चुनौतियों को आगे कर दिया है। यह युद्ध एक ऐसी विभाजक रेखा का निर्माण कर रहा है, जहां से फिर ‘नियो कोल्डवार’ (नव शीतयुद्ध) की शुरुआत हो सकती है, युद्ध के परिणाम चाहे जो रहें। गौर से देखें तो भारत ने न केवल इन परिस्थितियों को ठीक से समझा, बल्कि वह रूस-यूक्रेन युद्ध पर तटस्थता की एक महीन रेखा पर बड़ी सावधानी से चला।
यह भारतीय विदेश नीति की खूबसूरती भी है और संभवत: दुनिया की जरूरत भी। प्रधानमंत्री मोदी को इस यात्र के दौरान जर्मनी की नव-वाणिज्यवादी नीतियों के साथ संगतता बैठाते हुए दोनों देशों के बीच स्थापित ‘संबंधों को रीबूट’ करना था, नार्डिक देशों के साथ ‘हरित रणनीतिक साङोदारी’ की प्रगति की समीक्षा करते हुए उसमें वैल्यू एडीशन के साङो उपाय खोजने थे तथा फ्रांस के साथ स्थापित ‘दुर्जेयता’ और ‘अनुकूलता’ आधारित रिश्तों को आगे की ओर ले जाने की रणनीति बनानी थी। यूक्रेन युद्ध को लेकर यूरोप के थोड़े से बदले हुए मिजाज के बीच आगे की राह बनाना सामान्य स्थितियों के मुकाबले कुछ भिन्न चुनौती वाला भी था।
निर्णायक शक्ति बनता भारत: दरअसल रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच दुनिया के बीच एक विभाजन रेखा खिंचती हुई दिखी, लेकिन वह विभाजक रेखा सीधी और सरल नहीं है, बल्कि भू-राजनीतिक, भू-सामरिक और भू-आर्थिक है। वह कमोबेश यह दर्शाने में सफल हुई है कि नाटो और रूस-चीन कमोबेश दो ध्रुव होने का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ड्रैगन-बियर (ब्रिक अवधारणा में चीन-रूस की अर्थव्यवस्थाओं के संकेतक) और रेनमिनबी-रूबल केमिस्ट्री परिणामी दिशा में अग्रसर हो चुकी है। आने वाले समय में संभव है कि यह केमिस्ट्री डालर-यूरो बांडिंग पर भारी पड़ जाए। भारत इनके बीच एक निर्णायक शक्ति बनता हुआ दिख रहा है।
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