मांसाहार से बढ़ रहा है पृथ्वी पर असन्तुलन: आचार्य प्रशान्त

ग्रेटर नोएडा। अशोक

प्रशान्त अद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक एवम पूर्व सिविल सेवा अधिकारी आचार्य प्रशान्त ने कहा कि माँसाहार के कारण ही पृथ्वी पर असन्तुलन पैदा हो रहा है जो कि एक गम्भीर चिंता का विषय है हमारी भोगवादी प्रबृत्ति हमे विनाश की और ले जा रही है देश की युवा पीढ़ी को इसमें बदलाव लाने की पहल करनी होगी अन्यथा आने वाली पीढियां हमे माफ नही करेंगी।
नॉलेज पार्क स्थित केसीसी कॉलेज में आयोजित तीन दिवसीय वेदान्त महोत्सव को संबोधित करते हुए आचार्य प्रशान्त ने कहा कि मनुष्य बड़ा ही करामाती जीव है। कुछ रच पाने की उसकी हैसीयत हो, न हो, विध्वंस की उसकी क्षमता लाजवाब है। उलझन को सुलझा वो भले न पाता हो, पर सीधी सरल बात को भी उलझा लेने में उसका कोई सानी नहीं। कोई ग्रन्थ नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है जो कहता है कि जानवर को मारोगे तो उससे तुम्हें आध्यात्मिक तल का कोई लाभ हो जाना है इस बात का कोई प्रमाण नहीं है, इस बात के लिए कोई शास्त्रीय वैधता नहीं है कि पशुबलि से किसी भी तरह का कोई लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं पर बात की गई है अजमेध, अश्वमेध इत्यादि की। वो बात जिस सन्दर्भ में है उसको समझना आवश्यक है।
उन्होंने कहा कि अध्यात्म का पूरा क्षेत्र ही जानवर को इंसान बनाने की कोशिश है। शरीर से तो हम पशु ही हैं, वृत्तियों से भी हम पशु ही हैं और पशुओं की ही भाँति हम भी नए ताजे जंगल से ही निकल कर आए हैं। तो कूट-कूट कर पशुता हममें भरी हुई है। जब बात की जाती है पशुबलि की तो वास्तव में कहा जाता है कि अपनी पशुता को मारो। किसी पशु को मारने की बात नहीं हो रही है, अपने भीतर की पशुता को मारने की बात हो रही है। तुम्हारे भीतर है एक घोड़ा। वो दौड़ता है, सब दिशाओं में। वो पहुँचता कहीं नहीं पर दौड़ता बहुत ज़ोर से है। उसी के लिए एक साफ़ सुथरा नाम है ‘मन’। तो जब कहा गया ‘अश्वमेध’ तो वास्तव में उसका अर्थ था ‘मनमेध’। भीतर के इस घोड़े की बलि देनी है, अन्यथा घोड़ा मार कर के क्या लाभ?
उन्होंने कहा कि बकरे की जगह कुत्ते की बलि नहीं देंगे। क्यों? उसका माँस स्वादिष्ट नहीं होता। अब अच्छे से समझ लो कि तुम बलि क्यों देते हो। इसलिए नहीं कि उससे कोई धार्मिक लाभ हो जाएगा, इसलिए क्योंकि ये जो ज़रा सी ज़बान है न, दो इंच की, चमड़े की, ये लपलपाती रहती है स्वाद के लिए, किसी-न-किसी तरीके से स्वाद चाहिए। और कोई बहाना नहीं मिला तो धर्म का ही बहाना सही, काट कर क्या करते हो ये तो बताओ? बता तो ये रहे हो कि तुमने बलि देवी को दी है, अल्लाह को दी है लेकिन बकरा गया तो तुम्हारे पेट में है। जिसकी वजह से जैन और बौद्ध पंतो की स्थापना करनी पड़ी वो यही था। पंडो-पुरोहितों ने वैदिक धर्म को इतना विकृत कर दिया था कि उसमें दिन-रात बलियाँ ही चल रही होती थीं। अब आप समझेंगे कि क्यों जैन और बौद्ध मत में अहिंसा पर इतना ज़ोर है। वो कौन सी हिंसा थी जो वो देख रहे थे और जिसके कारण उन्होंने कहा, “नहीं, हिंसा नहीं चाहिए,अहिंसा, अहिंसा।” क्या लोग मार रहे थे एक दूसरे को? नहीं, ये नहीं हो रहा था। मंदिर में, यज्ञ में, हवन में, पूजन में, सब छोटे-मोटे धर्मार्थ कार्यों में पशुओं की बलि दी जा रही थी।आचार्य प्रशान्त ने कहा कि पशुबलि से धर्म का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है बल्कि पशुबलि धर्म के बिलकुल विपरीत है, चाहे वो कोई भी धर्म हो। पशुबलि धार्मिकता की आत्मा के ही ख़िलाफ़ है, चाहे उस धर्म का कोई भी नाम हो। एक बेज़ुबान निरीह जानवर को पकड़ कर काट दिया, उसका माँस पका कर खा गए, इससे कौन सी परम सत्ता आपको आशीर्वाद देने वाली है?
उन्होंने कहा कि पशुबलि के विषय पर ही बहुत स्पष्ट और बहुत साफ़ प्रमाण के साथ कुछ बातें लिखी गयी हैं। जो लोग इस विषय में और उत्सुकता रखते हों वो उस साहित्य को पढ़ लें। एक बात साफ़ समझ लीजिए — अगर आप अपने-आपको धार्मिक कहते हैं और पशुओं, जीव-जन्तुओं के साथ आपका हिंसा का, क्रूरता का नाता है तो आप कहीं से, किसी दृष्टि से, किसी कोण से धार्मिक नहीं हैं।
किसी को हक़ नहीं है किसी जानवर को काट देने का। और अगर कोई जानवर कट रहा है तो ये किसी का व्यक्तिगत मसला भी नहीं है। एक जीव पर किसी और का अधिकार नहीं हो सकता।
उन्होंने कहा कि अगर आदमी के मन ने तरक्की की, अगर संस्कृति का विकास हुआ तो आप देखिएगा एक दिन ऐसा आएगा जब जानवरों को भी तमाम वो सब अधिकार मिलेंगे जो इंसानों को हैं, कम-से-कम राइट टु लाइफ तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। जीने का अधिकार तो उन्हें ज़रूर मिलेगा। उन्हें किसी की संपत्ति के तौर पर नहीं गिना जाएगा। आप ये नहीं कह पाएँगे, “अरे, इस कसाई के इतने बकरे हैं, उसके बकरे हैं, वो काट रहा है तो काट ले।” ये उसका व्यक्तिगत मसला नहीं है।


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